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पंख संवार लूं।

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 पंख संवार लूं। सपनों का महल बनते रोक सकता नहीं अगर डर मेरी उड़ान का क्यों खा रहा मुझको मगर, घुट जाऊं गा खुद के अंदर क्यों न सांस बहार लूं, हां पंख मैं संवार लूं। मार ना तो डर को है, हार ना तो हर(भगवान)को है मैं मरूंगा हार के भी, क्यों फिर डर के हार लूं, कर के मजबूती में बाहें ,वायु के परहार लूं, हां पंख मैं संवार लूं। चाह ह मेरी की की छूना सूर्य के प्रतीरूप को मैं भी हुं कोई परिंदा पी न जाऊं धूप को,  संग्रहित कर के सारी ऊर्जा सर पे अपने डार लूं। हां पंख मैं संवार लूं। होये बेसक ना उजाला जा सकूं मैं पास भी, ये ख़ास हो विश्वास भी की पंख मैं संवार लूं, हां उनको मैं निखार लूं, क्यों नहीं परिंदा बनके आखिरी उडार लूं। हां पंख मैं संवार लूं। काव्य संग्रह: विकास तंवर खेड़ी

परिंदा होने का मतलब Poem by Vikash Tanwar kheri सलीम अली जी को समर्पित कविता

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परिंदा होने का मतलब परिंदा होने का मतलब ****************** आजादी तो चाहते सब हैं, है इसमें भी कुछ खोने का मतलब, फू ररर से उड़ जाना ही नहीं है  सिर्फ़ परिंदा होने का मतलब। चहचाना हंसी खुशी से, हो जाना गतिमान हवा में, आज़ादी की खुली पंख देती अलग पहचान हवा में, सर्द गर्म का दर्द सहन कर चहका देना दुनिया को सिखलाते हैं पक्षी हर दिन लेना गजब उड़ान हवा में, तपन दोह, झड़ अंधेर, सहना ठिठर बढ़ने का मौसम  बिन बंदूक के खाली ही दो दो हाथ करने का मौसम गतिमान हो पंख खोल के नभ में हरदिन फीर बढ़ने का मतलब फूर रर से उड़ जाना ही नहीं है सिर्फ़ परिंदा होने का मतलब। ***""""""*****""""***** विकास तंवर खेड़ी।