पंख संवार लूं।

पंख संवार लूं। सपनों का महल बनते रोक सकता नहीं अगर डर मेरी उड़ान का क्यों खा रहा मुझको मगर, घुट जाऊं गा खुद के अंदर क्यों न सांस बहार लूं, हां पंख मैं संवार लूं। मार ना तो डर को है, हार ना तो हर(भगवान)को है मैं मरूंगा हार के भी, क्यों फिर डर के हार लूं, कर के मजबूती में बाहें ,वायु के परहार लूं, हां पंख मैं संवार लूं। चाह ह मेरी की की छूना सूर्य के प्रतीरूप को मैं भी हुं कोई परिंदा पी न जाऊं धूप को, संग्रहित कर के सारी ऊर्जा सर पे अपने डार लूं। हां पंख मैं संवार लूं। होये बेसक ना उजाला जा सकूं मैं पास भी, ये ख़ास हो विश्वास भी की पंख मैं संवार लूं, हां उनको मैं निखार लूं, क्यों नहीं परिंदा बनके आखिरी उडार लूं। हां पंख मैं संवार लूं। काव्य संग्रह: विकास तंवर खेड़ी